Wednesday, December 9, 2009

I miss U

i miss u when i see someone as old as you ,
i try to feel the softness of your touch...
i wish u could still come and talk after all its been long ...
i really don't know why i often not come to u ..
what is that force that attracts me to u and what that prevents me...newton doesn't told it to anyone..
i know this is the law of nature ..u come and go...but of course its the feeling which remains as immortal forever....
i wish i would know somebody like u in this world...but i never trusted anyone till now...
i know how it feels to be alone..just as u may be feeling...
time tickles away and nobody notices...after all we r just humans..not god....

Thought of a day

i know start is the most difficult part of a revolution...becs. after that there is no coming back...
once u r in..u know that there is only one possibility...that is the one which dominates under u...i know i have never known the other possibility...or saying in other way i see the result out of my approach....hope i can live up to my own ideal approach...and hence the result...because it is i who is fighting with i..let me enter the ball of fire and get burnt so profoundly that even the sense of feeling me can guide others to the right path which the humanity deserves to be destined for...who m i to set the criteria ...am the messanger..who's dutybound to almighty god for this...in the way u understand...u feel..u observe..u desire..and u perform...

Tuesday, December 1, 2009

वो आखिरी रात वो आखिरी मुलाकात और वो रेशमी धागा

आज भी जब वो रात मै याद करता हूँ तो सिहर उठता हूँ. उस रात जब मै अपनी साइकिल पर नेहा के घर की तरफ निकल रहा था तो बस एक ही सवाल मेरे जेहन में बार बार कौंध रही थी की आखिर क्यों आज पहली बार उसने मुझे अपने घर पार्टी में आमंत्रित किया है? हम दोनों आज पिछले तेरह दिनों से नहीं मिले हैं. नेहा मेरी कॉलेज में मेरे साथ पढ़ती है. हम दोनों समाजशात्र में बी.ए. कर रहे हैं और ये हमारा आखिरी साल है. नेहा और हम दोनों की शुरु से ही अच्छी दोस्ती है और हम यकीनी तौर पर एक दूसरे को पसंद करते हैं बिना ये जाने की हमारे परिवारों के बीच एक बहुत बड़ी आर्थिक खाई है जिसे इस जनम में पाट पाना मुश्किल है.

नेहा के पिता शहर के जाने माने वकील हैं और मै एक मामूली क्लर्क का बेटा. मै कई बार नेहा को छोड़ने उसके घर के पास आया था और एकाध बार उसके पिता ने हम दोनों को साथ साथ देखा भी था. हाँ , एक बार नेहा ने मुझे बताया भी था की उसके पिताजी को हम दोनों का मिलना पसंद नहीं और शायद नेहा को अपने जैसे ऊँचे घराने के लोगों के ही साथ रहना चाहिए.तब शायद नेहा ने मुझे बस दोस्त का दर्जा देकर बहस समाप्त कर दी थी. मगर पिछले एक महीने में वो कुछ ज्यादा ही मेरे करीब आ गयी थी. उसे अपना घर एक जेल सा लगने लगा था जहाँ हर कुछ कृत्रिम सा हो . मेरी बाहों में वो जन्नत महसूस करती थी मानो वो अप्सरा बन गयी हो. उसकी मुस्कराहट पे जैसे लाखों मोती झर झर कर जमीं पे बिखरते और मै बच्चों की तरह उनको चुनता रहता. सचमुच ये इश्क-विश्क भी अजीब चीज है, करते सभी हैं पर बहाने अलग अलग.

मै अब उसके घर से करीब पचास मीटर की दूरी पर था . उसके घर की सजावट की रोशनी से पूरा आस-पड़ोस जगमगा उठा था. वैसे तो मैंने अपने हिसाब से सबसे बढ़िया ड्रेस पहन रखी थी पर आते जाते मेहमानों के सामने बिलकुल वेटर लग रहा था. खैर मैंने पार्टी में प्रवेश किया और यूँ ही एकांत में कहीं कोने में जा कर खड़ा हो गया. सबसे पहले नेहा के पिताजी की नज़र मुझ पर पड़ी तो उन्होंने मुझे आमंत्रण के भाव से पूछा की मैंने शरबत क्यों नहीं ली अब तक. मै थोडा झेप्तें हुए अंदाज में बोला जी अभी अभी आया हूँ ले लूँगा,शुक्रिया. फिर उन्होंने पूछा क्या मुझे मालूम है की आज नेहा की सगाई है और ये बात वो सिर्फ मुझे बता रहे हैं क्योंकि बाकी मेहमानों के लिए ये एक सरप्रायज है. मै तभी समझ गया की मेरे यहाँ बुलाने का क्या कारण था. इसी बीच वेटर ने मुझे एक ग्लास शरबत ऑफर की और मैंने स्वीकार कर पर उसने मुझे ग्लास के साथ एक कागज का नोट भी पकराया.

इससे पहले की मै उसे खोलूँ मैंने नजरें इधर इधर घुमाई और देखा की कोई इधर देख तो नहीं रहा और जब मै संतुष्ट हो गया तो मैंने वो टुकड़ा खोला. उसमे लिखा था शामियाने की दाहिनी तरफ एक दरवाजा है उससे होकर अंदर आ जाओ. मैने बिजली की फुर्ती से दरवाजे के भीतर प्रवेश किया तो नेहा को सजे हुए कपड़ों में खड़ा पाया. उसने तेजी से मुझे अपनी ओर खिंचा और इस तरह मेरे गले की ताबीज उसके हाथों में आ गयी. इस पल हम दोनों एक दूसरे के इतने करीब थे जितने कभी नहीं और मुझे मालूम था की अगले ही पल इतने दूर हो जाएँगे जितने कभी नहीं.

हमारी सांसें एक दूसरे से कुछ कहना चाहती थी और शायद धडकनों से वो बात निकल भी रही थी मगर होठों पे अजीब ख़ामोशी थी. मैंने बिना लब्ज खोले उसके हाथों में अपनी ताबीज रख दी और धीरे से कहा की इसे वो मेरी आखिरी निशानी समझ कर रख ले. उसकी आखों में अब दो आसूं छलक आये थे. तभी एक झटके से उसने मेरा दायाँ हाथ पकड़ कर एक रेशमी धागा बांध दिया और फुसफुसाते हुए लब्जों में कहा रिश्ता कोई भी हो वो मुझे खोना नहीं चाहती. अगले ही पल मै शुन्य में चला गया था एकदम भावविहीन और वो बिना मुड़े चली गयी अनंत सागर में मिलने को जैसे बस इसी पल के लिए आसमान से उतर कर आई थी या बस इसी पल उसने अपनी विशाल धाराओं को रोक रखा था.

उस रात मै बस यही सोचता रहा क्या बंधन ऐसे भी हो सकते हैं या फिर कोई किसी से यूँ भी जुड़ सकता है. कुछ भी हो मुझे अनंत डोर में बांध गयी थी नेहा जिससे मै चाह कर भी जुदा नहीं हो सकता था और न हुआ.

Sunday, November 29, 2009

यूँ इस तरह खोकर तुझे हम ग़म मनाते हैं

यूँ इस तरह खोकर तुझे हम ग़म मनाते हैं
प़ी लेते हैं थोड़ी और फिर भूल जाते हैं

इस ग़म का सबब किस किस को न हम बताते हैं
दोस्त नहीं, दुश्मन भी नहीं पूरी महफ़िल को रुलाते हैं
यूँ इस तरह खोकर तुझे हम ग़म मनाते हैं

इसका गिला नहीं हमें अब की हम तुझे न भूल पाते हैं
आठों पहर याद करके तुझे हम आसूं बहाते हैं
यूँ इस तरह खोकर तुझे हम ग़म मनाते हैं

इस प्यार में लोग कितने यहाँ अंधे हो जाते हैं
एक नहीं दो नहीं मानों मेरी सारे रिश्ते भूल जाते हैं
यूँ इस तरह खोकर तुझे हम ग़म मनाते हैं

तोड़कर दिल हमारा यूँ आप महफ़िलें सजाते हैं
हम यहाँ अकेले अब आपकी याद में मौत को बुलाते हैं
यूँ इस तरह खोकर तुझे हम ग़म मनाते हैं
प़ी लेते हैं थोड़ी और फिर भूल जाते हैं

प्रेम की परिभाषा मेरी नज़र में

मै नैनों की समझूँ मै शब्दों की समझूँ
तू आखें मूंद ले तो धडकनों की समझूँ
मोहे प्रेम की भाषा न समझा
मै सन्यासी इस जहाँ की भी समझूँ
उस जहाँ की भी समझूँ

प्रेम
में बड़ी शक्ति है . यह आत्मा को शुद्ध करता है. यह नयी मंजिल की तरफ बढाता है. यह तृप्ति का मार्ग दिखाता है. यह अधूरेपन को पूर्णता में बदलता है.प्रेम को इस कच्ची उम्र में समझना बहुत मुश्किल है. प्रेम को पहचानना भी कठिन है . इसे निभाना भी कठिन है. प्रेम में मिलन एक छोटा सा भाग है. इसके तो अनेक ऐसे भाग हैं जिसमे जीवन की असली सच्चाई छिपी है -जैसे विरह,त्याग , जुदाई , बिछरना, आदि. आज के ज़माने में प्रेम एक छणभंगुर एहसास बन कर रह गया है. कभी प्रेमिका से सम्बन्ध जोड़ते समय तो कभी पत्नी से रिश्ता निभाते वक़्त , यह प्रेम उतना अगाध रूप हासिल नहीं कर पाता है. इस पर सांसारिक ताकतों का बोझ इतना बढ़ जाता है की मनुष्य प्रेम को एक भोग वस्तु समझ बैठता है. प्रेम कोई नश्वर चीज नहीं जिसका सेवन करो और भूल जाओ . ये तो आत्मा की सन्तुष्टि का द्वार है. इसी की तलाश में मानव करोड़ों वर्ष से भटक रहा है मगर किसी शापित मनुष्य की तरह चाह कर भी इससे वंचित है .

'हो त्याग इतना प्रेम में फिर क्यों हो कोई कलह-विषाद,
आसूं इतने बहें तेरे लिए कम पर जाये सागर अपार '

colors of sky

Rare Sun Pillar

आज फिर से

तस्वीर का वो आयाम जो मैं बदल नहीं सकता
बीते समय की सुबह-शाम जो मैं बदल नहीं सकता
कागज पे लिखे वो तेरे नाम जो मैं बदल नहीं सकता
याद आ रहे हैं मुझे आज फिर से

तमन्ना-ए-इश्क पे भरी पड़ी थी मजबूरियाँ
सिसकती रातों से भीगा था मेरा हर सावन
तुझको पुकारती रही मेरी हर सांस हर धड़कन
आसूं बहा रहा हूँ मैं आज फिर से

तेरा प्यार मेरी ताकत बना जुदाई मेरी कमजोरी
मंजिल की तरह जो उठे कदम रोक न पाया कोई
सफलता के हर सोपान पे हमने दी तेरे यादों की आहुति
पछता रहा हूँ मैं आज फिर से

की आज जब जिंदगी सागर को मिलने चली है
हर आरजू ख़त्म बस तेरी कमी लगी है
वो राह भला हमने चुनी क्यों थी
खोकर पा रहा हूँ तुझे मैं आज फिर से

Young Nation Old Politicians


I was wondering democracy defines involvement of all its citizens in the decision making process on issues on nation development. Instead what’s happening in India at present is a group of old politicians mostly 45 plus taking stand on all issues of national importance. Their image is just like the ever changing Chameleon who amends themselves according to their immediate interest and sacrifices the nation’s future. One can clearly see how many politicians see India in 2015 or 2020 but they only see the immediate assembly elections or the upcoming parliamentary by poll elections. Talking about youth we know the population under 34 years is around 41% as per the Census of India – 2001. According to some estimates the current proportion of population under 25 years in India is 51% and the proportion under 35 is about 66%. This predominance of youth in the population is expected to last until 2050 while the average age of an Indian in 2020 is expected to be 29 years.

We talk of reservation for SCs & STs, OBCs, and women but why not for youth. Do youth represent a different class of people who better involve themselves in jobs? Are we right in dividing people based on caste only and demanding benefits accordingly? When you ask a youth today he is never bothered about his caste or his background but demands a respectable life only. Why not we have reservation for youth in every sphere of life? This question will rise in near future when especially the so called old experienced politicians will put constantly the nation future in jeopardy. There is always an explanation that youth of today is not interested in political affairs but I strongly disagree. I feel the right environment and platform is not there. We better realize this fact and create opportunities for youth to participate in decision making process. We can easily realize this by reserving some constituencies where youth population is around 50% or more and certainly we can keep some of them for male and female too. It is a high time we start preparing to give the possession of this nation in hands of its rightful authority –our youth. Remember if we continuously suppress they will take it anyway either in form of some revolution or may be through destructive ways. This change will bring satisfaction of their presence at the top. They can better guide the sidetracked youths involved in violence like naxalites, terrorists, banned organizations, etc. and bring them to the society. We certainly do not require a Jan Aandholan to recognize them or do we?

-ankur200610@rediffmail.com

Saturday, November 28, 2009

Mahaguru Speaks

A war for opportunity

There’s a war going on for opportunity. It’s like a race for those who have not been given what they deserved. As they are fleeting through new turns, another entrant, no matter how big or small it is, join them. They (the former ones) then try to sluggish their pace or delude or dominate so that they can have that lost opportunity. Their condition can be compared with a burgeoning flower plant which has never got the dazzling sunshine but has observed it through the closed glass window in a room with artificial light .Why would this plant offer flower to others for it has made it with lot of struggle and serenity. What’s mistake with the person who wants that flower? I think the error is somewhere else. Go and find out who has forced the flower plant to live in the shadowy room and who has directed that person to bring flowers from that plant instead of going to a garden. You got the point I feel. Let us allow to relocate these flower pots to a garden where they will be contented to get the full sunshine and will happily gift their flowers to those who desire.

Mahaguru Speaks

MONOTONY REDISCOVERED

Monotony is what the destiny we have inherited. Every time we try to go beyond the boundaries, either the barking creatures stop us or we are pulled by psyche persons. Please don’t ask me the reason. A long hearing day process is followed by long watching night game. In between these we are bombarded with flurry of tasks ultimately leading to a single end: come on give me a break. If you wish to change this boredom create a fictitious person just alike of you and let him do the usual tasks. You the real one do what your heart says. At the end of the day, compare who is happier .I feel you got it. That’s what happens in nature. But unfortunately one doesn’t see from that angle. The river doesn’t flow in the same way always; instead it too changes courses, plays with rocks and floods regions. A plant doesn’t ask you where to grow and how much to grow?
Change is the laws of nature: just follow it and start jumping on your limbs. Of course you are feeling the heat of change.

Mahaguru Speaks

Morning Nightmare

Yesterday I was confronted with a pile of facts and figures about a subject .It seemed if a mass of water in an organized form was coming to flood me. I ran everywhere but soon realized it’s a routine work for these waves of uninteresting faces to come and dance before me. I could not find the root of this problem while everyone was busy dealing with its outcomes. They were comparing among themselves for better avoidance or dealing with routine disaster. Every morning I wake up and see this mountain growing taller and taller. No one tells me how to dig out holes to go the other side. Some tell there are no shortcuts too. But I wish this mountain could be replaced by a river where I could row a boat to reach whichever point I wanted on the other side of bank.

-MAHAGURU

MONSTER OF STRESS

Recently I came across that September 10 is celebrated as World Suicide Prevention Day. Naturally my memory stuck to the recent event of a suicide attempt at my prestigious institution and the consequent awakening of the administration of appointing of a Psychiatrist to deal with stress problems. Well this is not the first time these types of suicide attempts are happening in premier engineering institutions especially IITs and allied organizations. I as a student tried to introspect about the problems of stresses and their causes which unfolded many major issues and reasons.
High Expectation
When I first entered the gates of my institution I had a lot of expectations especially when one clears exam like IIT-JEE and is ranked among top 1-2% of those who take this exam. A lot of students want to excel in their areas of expertise and try to come out with something original. They often see themselves on the forefront in their respective fields. Bur the mirage of IIT engulfs their dreams not fully but enough to force them into depression. Well I am amazed at this too but here are the reasons: Low quality of teaching and practical, restrained freedom from course structure for innovation, hectic schedule and often dictation type teaching, good professors are not having time to share on account of consultancy works and added responsibility of administration, financial strains for putting ideas into realities, etc.
Inability to change and adjust
Change is something you rarely see in a government organization and if you try either you will change or you will be out of the system. So, this leaves with the only option of adjusting and adapting. It feels great to join the common class ,passing the valuable four years without adding some value, underutilization of so many great brains who otherwise could have changed the picture of India and those who in spite are able to do justice by own self fly overseas thanks to brain drain. However there remains some countable persons who are not able to adjust or adapt and hence there builds up the stress monster. The feeling of guilt not to do justice to yours ability, not enough scope within the boundaries of institution and forced to
follow a repetitive schedule of exam after exam without learning for four years.
Going inside the problem
A six or seven day of exams without a break that two twice within six months which tests not yours analytical skills but mug up ability and that in vey good handwriting. A whole of book is finished within no time by the professors and by the time exams come you are left with a huge demand of tasks to be done by your own. One must not be amazed by the quality of PhDs and research that are done under these conditions. Ultimately there is survival and that is through sustenance by building their own world of time pass through computer gaming, movies and serials, social networking sites and many other useless activities. But there may be some who are so much bored of this environment that they resort to smoking, alcoholism, etc. While some of them may generate tendencies of distress often when they think of their glorious past and their gloomy future. Suicide attempts are just an extreme outburst of these types of tendencies.
Where’s the solution
The solution is in the finding the root of problem which is not that the students are not able to cope with the demand of studies but the demand from students that is sought remains unfulfilled. We need quality education, quality professors, quality infrastructure, enough opportunities, and most of all enough freedom to invest our energies in our areas of interests. Until then we will be killing thousands of brilliant brains in the name of IIT each year.
-ankur200610@rediffmail.com

my story

परिस्थिति के बोझ तले
दबा एक अंकुर
समय से पहले मांगे
चीजें वो बहुत कुछ

है उसे भी ये संज्ञान मगर
दिन ढले रात आती है
पर सवेरा दूर नहीं प्यारे
थोरी देर तो ठहर

तुझे तारों से है क्यूँ नफरत इतनी
पूछ क्यूँ जलती बुझती है उनकी रौशनी
सूरज का तेज तुझे पसंद है
इसलिए तुझमे धीरज जरा कम है

अंकुर होना कोई गौरव नहीं
तुझे अभी विशाल पेड़ बनना है
फिर दे सकेगा तू छाया सबको
लक्ष्य है यही तेरा धरती पर

जिंदगी कोई साठ बरस की कहानी नहीं
ये तो अनवरत चलती एक कथा है
जिसमे आये- जाये कलाकार यूँ ही
चलते रहना ही जिनका धर्म है

है तुझे बनना कोई महान
तो कर समय का सम्मान
करवट बदलेगी ये किसी भी पल
चलना मगर तू एक समान

my introduction in poetic format

मै विद्ध्वंश का अवशेष हूँ
मै मानवता का क्लेश हूँ
मै क्रूरता का आवेश हूँ
मै अमरता का सन्देश हूँ

मै धधकती ज्वाला हूँ
न मिट सकने वाली आभा हूँ
मै प्रेम का पर्याय हूँ
मै तेरी जिंदगी का नया अध्याय हूँ

मै सागर की अंतरिम गहरायी हूँ
मै आसमान की ऊँची छलांग हूँ
मै मिटटी के कण-कण बसा हूँ
मै हूँ नव कोपन अंकुर अभाय्मान

kahani of love

कल रात एक अजब एहसास हुआ
जाने क्यों हमें तुझसे प्यार हुआ
ये इश्क था भी या एक आकर्षण
धीरे-धीरे मै जिंदगी से बेजार हुआ

हाय ये दिल भी हमने वहां लगाई
जहाँ दिल पहले ही लुट चुके थे
पाने को चले थे सारा आसमान
अब दो गज जमी के नीचे खड़े थे

ये इश्क भी अजीब सुकून देता है
न जीते बनता है न मरते बनता है
लाख छुपा लो सिने में इसका दर्द
अश्क बन कर हर पल आँखों से बहता है

खोकर भी तुम्हे पाया है बहुत
मैंने अब खुद को समझाया है बहुत
हो सके तो ए मेरे जीवन की प्रेरणा
इस जनम न सही तो अगले जनम मिलना

जब तेरा मेरा सामना होगा

जब तेरा मेरा सामना होगा
समय जैसे ठहर सा गया होगा
आहिस्ता-आहिस्ता नजरें बातें कर रही होंगी
लबों पे जैसे ताला सा लग गया होगा

अभी तेरी नजरों ने कुछ कहा होगा
अभी मेरी पलकों ने कुछ सुना होगा
कुछ समझने से पहले ही एक
ठंडी हवा का झोंका सा आया होगा

तेरी झुल्फ़ बिखरी होगी कुछ यूँ
तेरी लटें गिरी होगीं कुछ यूँ
तेरा आँचल यूँ उरा होगा
और हया से तुने उसे संभाला होगा

मेरा दिल जोरों से धरक रहा होगा
माथें पे तर-बतर पसीना सा रहा होगा
मेरी नजरें तुझ पर जम सी गयी होंगी
शायद तुने मुझे गूंगा समझा होगा

कुसूर मेरा नहीं ऐ हमसफ़र
ये तो तुझे बनानेवाले का रहा होगा
तभी तो इस हुस्न का दीदार करने वो
धरती पे बार-बार आया होगा ...

मेरा अधूरापन

दिल में एक तन्हाई सी है
पास सब हैं फिर भी जुदाई सी है
वो कौन है जिसका है इंतज़ार मुझे
अभी तक मेरी जिंदगी परायी सी है

है वो कोई कर्ज जिसे चुकाया नहीं
या है वो दर्द जिसका कोई सहारा नहीं
वो कोई सूरत है या कोई सच
जिसको मै अब तक जान पाया नहीं

बड़ी भटकन है दिल कहीं ठहरता ही नहीं
पास मेरे सब कुछ है पर दिल बहलता ही नहीं
न जाने किस जुर्म की सजा है ये
लाख कोशिशें कर ली पर नशा चढ़ता ही नहीं

ए खुदा एक बार मुझे मिला दे उससे
बता दे क्या वास्ता है मेरा इस सबसे
फिर आएना हर रोज पूछेगा यही मुझसे
ए बन्दे तुझे मंजिल का पता मिल गया कबसे

ये सब सच भी है या है माया
हमने तो आज तक वही किया जो भाया
एक बार तो अ़र्ज कर तेरी रजा क्या है
फिर देख तेरी राहों में लहू का हर कतरा बहा देंगे

maajhi ki aawaj

गर्दिश में हैं मेरे सितारे , पर तुझे इससे क्या
सूखे हैं मेरे किनारे ,पर तुझे इससे क्या
बिखरे हैं मेरे इरादे, पर तुझे इससे क्या
तू तो बहती जलधारा है, तुझे मेरी कश्ती से क्या

तेरी हथेली पे तैरता हूँ मै हर बार
तुझे पूजता हूँ मैं हर बार
डूब कर उभरता हूँ मैं हर बार
शायद एक दिन उतरूंगा कभी उस पार

तेरी लहरों का मुझ पर बड़ा असर है
अब मुझे मौत न कोई डर है
माना बड़ी मुश्किल ये डगर है
पर तू ही अब मेरा हमसफ़र है....

ankaha waada

मोड़ आए थे बहुत
कुछ अश्क भी बहे थे
तेरी राहों से जुदा होते वक़्त
ये लहू बन कर गिरे थे

न हमने तुमसे कुछ कहा न तुमने हमसे
पर फिर भी हमारे दिलों ने बड़े-बड़े वादे किये थे
की जब तक खड़े न हो जाएँ अपने पैरों पर
अपना दिल एक दुसरे को उधार दिए थे

सोचा था सच्ची वफ़ा में बड़ा वजन होता है
इसके लिए हो तो आदमी पैदा हर जनम होता है
मिलाएगी कभी न कभी हमें राहों में
वफ़ा की राह में मंजिल तो सनम होता है

इरादे अब बिखर रहे हैं
वादे अब पिघल रहे हैं
इंतज़ार तेरा तब भी था और अब भी है
कहीं ऐसा तो नहीं हम तेरी बाँहों से फिसल रहे हैं

The day when a poet was born

I still remember the day when there was a poem writing competition in my school and they gave us only three hours to write and submit the poem. Although there was not much enthusiasm among my friends as Hindi alone was nightmare for them and to add poem writing was a herculean task for them. However i knew one friend, Suman Saurav , the fat old boy popularly known as budhba (an old person) who was good at poem writing. he has already shown us his wriiten poems in his diary and i was surprised to see his articulation and beautiful use of words. honestly speaking i am jealous of every articulate person because i too want to have that talent. So, with envy i engulfed that feeling. That day he quickly copy pasted his one of the poems for the competition from his diary and seeing that i was at height of my jealousness. Why can't people work honestly, i thought, he should have written one down and then submitted it if he has the class of writing poems. Then and there i decided that at least today i will try wroting one poem. I was assisted by one of my friends who was sitting besides me. He was Zeeshan Zafar and although he should be good at urdu but to the contrary he was helping me write one hindi poem. We focused on rhythm and chose simple rhyming words to form small sentences. Then we formed sequencing paragraphs and fighting with words for three and half hours we were able to make a poem. It was an ordinary but simple and effective. to pen it down in three and half hors in school time was a brave effort om our part. But the story doesn't end here. Actually we Zeeshan and i submitted the same poem. Fortunately or unfortunately i don't know, mine the one which was adjudged among the best poems and i was called for recital of the same in the assembly. It was a gift as well as prize for us of our maiden effort which boosts my energy even today for my passion for writing in hindi.