Monday, May 3, 2010

आज फिर से एक ख्वाब टूटा पाया

एक दिन खुद-ब-खुद तेरी चौखट की ओर कदम बढाया
और लाँघ कर देहलीज़ अपनी रौशन की तेरी दुनिया
हर आंसूं तेरी अपना बनाया और हर गम अपनाया
तू जो हँसा तो भी खुद को अश्कों में पाया
मालूम नहीं पिछली बार मै कब मुस्कराया
पर हर पल तुझमे खुद को हँसते हुए पाया
आज लिखते लिखते भी तेरे लिए दिल भर आया
तेरी ख्वाहिश को पूरा होते मै न देख पाया
अब आहिस्ता-आहिस्ता कदम मैंने लौटाया
फिर मिलना चाहूँगा तुझसे यही दोहराया
बहुत हुआ शायद तुझे फिर से न समझ आया
आज फिर से एक ख्वाब टूटा पाया

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